• नीला ड्रम, स्टोव बनाम स्त्री विमर्श

    मेरठ में सौरभ हत्याकांड के बाद नीला ड्रम काफी चर्चा में आ गया है। सौरभ की पत्नी मुस्कान ने अपने प्रेमी साहिल के साथ मिलकर हत्या की थी और फिर सौरभ के शव के 15 टुकड़े कर के उसे एक ड्रम में भरा और ऊपर से सीमेंट डाल दिया था

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    - सर्वमित्रा सुरजन

    पहले इन घटनाओं को मनोहर कहानियां जैसी पत्रिकाओं में स्थान मिलता था। फिर न्यूज चैनलों के अपराध बुलेटिनों में इनका नाटकीय रूपांतरण होने लगा। अब सोशल मीडिया इन खबरों के अधिकाधिक प्रसारण के लिए माकूल मंच बन गया है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, लेकिन अब सोशल मीडिया को समाज का आईना कहा जा सकता है।

    मेरठ में सौरभ हत्याकांड के बाद नीला ड्रम काफी चर्चा में आ गया है। सौरभ की पत्नी मुस्कान ने अपने प्रेमी साहिल के साथ मिलकर हत्या की थी और फिर सौरभ के शव के 15 टुकड़े कर के उसे एक ड्रम में भरा और ऊपर से सीमेंट डाल दिया था। फिलहाल दोनों आरोपी जेल में हैं और पुलिस इस मामले की हर कोण से जांच कर रही है। शुरुआत में इसमें तांत्रिक क्रिया के होने का संदेह था, लेकिन इससे पुलिस ने इंकार कर दिया है। यानी यह हत्याकांड गलत तरीके से चल रहे प्रेम संबंध की परिणति है। हत्या के बाद शव के टुकड़े करने जैसा वीभत्स काम कोई पहली बार नहीं हुआ है, न ही अवैध प्रेम संबंध के चलते पति या पत्नी में से किसी एक की हत्या की घटना पहली बार हुई है। ऐसे कई खौफनाक अपराध इसी समाज में घट चुके हैं। याद करें तो नैना साहनी को मारकर तंदूर में डाल दिया गया था। इंद्राणी मुखर्जी ने अपनी ही बेटी की हत्या करवा कर उसकी लाश को जंगल में फिंकवाया था और हत्या के पहले अपनी बेटी को वह छोटी बहन बताती थी। अभी पिछले ही साल गोवा के एक होटल में एक मां ने अपने 4 साल के बेटे की हत्या कर दी। इसके बाद शव को बैग में भरकर टैक्सी से बेंगलुरु चली गई। इन घटनाओं को याद करना दुखद है, लेकिन उससे भी दुखद बात ये है कि ऐसी एक घटना के धब्बे हल्के पड़ते नहीं कि, दूसरा भयावह प्रसंग खड़ा हो जाता है। इस तरह की खबरों पर अक्सर समाचारों में लिखा जाता है कि समाज दहल गया, सिहर गया, चौंक गया आदि, लेकिन क्या वाकई समाज में अब संवेदनशीलता बाकी रह गई है। क्योंकि संवेदनाएं होती तो ऐसी खबरों की अधिकता न होती।

    पहले इन घटनाओं को मनोहर कहानियां जैसी पत्रिकाओं में स्थान मिलता था। फिर न्यूज चैनलों के अपराध बुलेटिनों में इनका नाटकीय रूपांतरण होने लगा। अब सोशल मीडिया इन खबरों के अधिकाधिक प्रसारण के लिए माकूल मंच बन गया है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, लेकिन अब सोशल मीडिया को समाज का आईना कहा जा सकता है। लोगों के वक्त का बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने या पढ़ने में चला जाता है। समाज में कहीं कोई घटना घटी नहीं कि फौरन उस पर मीम्स, रील्स बनकर वायरल हो जाते हैं। अब तो ग्रोक की मदद से तरह-तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं और हर कोई घिबली आर्ट से अपना एनिमेटेड अवतार बना रहा है।

    सोशल मीडिया पर इस तरह के चलन कई बार चलते हैं। एक लहर सी आती है, समाज उसमें बहने लगता है, फिर वो लहर लौटती है, पीछे जो कचरा बच जाता है, उसे साफ करने का कोई उपाय नहीं रहता, तब तक दूसरी लहर आ जाती है। इसी तरह सोशल मीडिया के समुद्र में समाज गोते लगा रहा है। लेकिन तटस्थ होकर सोचें तो सोशल मीडिया में हम असल मायनों में सोशल होने की पहचान को ही खोते जा रहे हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है तो समाज की भलाई की चिंता उसे होनी चाहिए। लेकिन अभी समाज किस दिशा में जा रहा है, इसकी कोई परवाह ही नहीं हो रही है। खबरों पर फौरन प्रतिक्रिया देने या उसे वायरल करने या जरूरत से ज्यादा वक्त उस पर बिताने में हम भूल रहे हैं कि इन सबका कितना नुकसान समाज को हो रहा है। सोशल मीडिया कई जरूरी मुद्दों और विमर्शों को भी भटका रहा है।

    जैसे सौरभ हत्याकांड के बाद चर्चा में आए नीले ड्रम का जिक्र्र मैंने किया। खबर आई कि मेरठ के व्यापारी अब नीला ड्रम खरीदने वालों से पहचान पत्र भी मांग रहे हैं। बताया जा रहा है कि अब नीले की जगह लोग सफेद या नारंगी रंग के ड्रम खरीद रहे हैं। इसी तरह हापुड़ की खबर आई कि एक व्यक्ति ने पुलिस से गुहार लगाई कि उसे बचा लिया जाए, उसकी पत्नी के अवैध संबंध हैं और वो सौरभ की तरह उसे मार सकती है। ग्वालियर में भी एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी के खिलाफ इसी तरह की शिकायतें दर्ज कराईं, हालांकि महिला थाना में पत्नी ने पति के खिलाफ प्रताड़ना का मामला दर्ज कराया हुआ है। पन्ना में तो एक पति ने अपनी पत्नी पर मारपीट करने के इल्जाम लगाए और बतौर सबूत छुपे हुए कैमरे से रिकार्डिंग भी पेश की, जिसमें पत्नी पति को मारती हुई दिख रही है।

    इन सारी घटनाओं में कितना सत्य है और असल में पीड़ित कौन है, इसका पता तो जांच के बाद ही चलेगा। लेकिन इतना तय है कि विवाह संस्था पर अब पहले से अधिक खतरे बढ़ गए हैं। रिश्तों में दरारें पड़ना अचरज की बात नहीं है, लेकिन अब उन दरारों से जो आधी-अधूरी सच्चाई के साथ सनसनीखेज खबरें बाहर आ रही हैं, उसे लेकर समाज को फिक्रमंद होना चाहिए, क्योंकि आखिर में तो ये घटनाएं हमारा ही अक्स दिखा रही हैं। उपरोक्त तमाम घटनाओं में गौर करने की बात ये है कि पीड़ित पक्ष पुरुष को दिखाया गया है, इसलिए लोगों की दिलचस्पी इनमें ज्यादा हुई। वर्ना मुजफ्फरनगर का ही एक और मामला सामने आया है, जिसमें शादी के दो माह बाद ही पति ने पत्नी से दहेज की मांग शुरु कर दी और उसे ससुराल में आने से रोका गया, जिसके बाद पत्नी ने भी ससुराल के बाहर धरना दे दिया। दोनों संपन्न परिवारों के पढ़े-लिखे लोग हैं, पत्नी वकील है और पति आर्किटेक्ट। बहरहाल, इस घटना पर ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं जाता अगर पत्नी धरने पर न बैठती। क्योंकि दहेज के नाम पर कितनी प्रताड़नाएं हुई हैं, कितने स्टोव नववधुओं पर फटे हैं, कितनी बहुओं को जलाकर मार दिया गया, इसकी कोई गिनती ही नहीं है।

    लेकिन दहेज हत्या को समाज सामान्य तरीके से लेता रहा, इसलिए दहेज पर कानूनी रोक होने के बावजूद समाज में कोई प्रतिबंध नहीं लगा। वरिष्ठ पत्रकार और देशबन्धु के स्तंभकार शकील अख्तर ने लिखा भी कि स्टोव खरीदने से पहले किसी का पहचान पत्र नहीं मांगा गया। वाजिब बिंदु है कि नीले ड्रम को लेकर अनावश्यक सनसनी खड़ी की गई, ताकि सौरभ की हत्या और उसके शव के साथ किया गया सलूक याद रहे। लेकिन इस देश में हजारों लड़कियों को दहेज के नाम पर अकाल मौत दी गई, क्या उनके साथ किए गए सलूक को याद रखने के लिए कोई पहल की गई। अगर हत्या न भी हो, तब भी इस देश की महिलाओं को अनगिनत अत्याचारों से गुजरना पड़ा है और अब भी ऐसा हो रहा है।

    उन्हें शारीरिक तौर पर न सही, मानसिक तौर पर कई बार मारा जाता है। शरीर के 15 टुकड़े न हों, तब भी आत्मा को तार-तार करने तक प्रताड़नाएं दी जाती हैं। इसी देश में वो रामायण भी लिखी गई है, जिसमें सीता माता का पहले एक शक्तिशाली राजा ने अपहरण किया, फिर उनके पति ने युद्ध कर उन्हें छुड़ा तो लिया, लेकिन अग्नि परीक्षा से गुजरने के बाद ही अपनाया, और फिर धोबी की बात सुनकर अपने घर से निकाल दिया, जबकि वे गर्भवती थीं। आखिर में मां सीता को धरती में ही समाना पड़ा। इसी रामायण में शूर्पणखा भी है, जिसे अपने प्रेम का इजहार करने की सजा नाक कटवा कर भुगतनी पड़ी और अहिल्या भी इसी कथा का हिस्सा हैं, जिनके साथ छल हुआ, लेकिन पत्थर में तब्दील होने की सजा भी उन्हें ही मिली।

    पौराणिक काल की सीता से लेकर आज की बिलकिस बानो तक न जाने कितनी स्त्रियों पर अवर्णनीय अत्याचार हुए और उनके वजूद को अनगिनत बार टुकड़े-टुकड़े किया गया। लेकिन अब कुछ घटनाओं के कारण स्त्री मुक्ति विमर्श को ही प्रभावित करने की कोशिशें हो रही हैं। मुस्कान जैसे एकाध मामले आने से सारा स्त्री समाज दोषी नहीं हो जाता है, न ही इसमें महिलाओं की बराबरी के हक, भेदभाव के सवालों के जवाब खत्म होते हैं। इन घटनाओं को अपवाद मानकर असल सवालों पर विमर्श हर हाल में जारी रहना चाहिए, अन्यथा मां सीता बार-बार इंसाफ के इंतजार में धरती में समाती रहेंगी।

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